फ़ुल और काँटें की कहानी

Kapil Gadhire
2 min readApr 28, 2020
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कलि थी तू नाजूकसी
गुलाबीसे गाल।
लोहा था मैं। सख़्त से हाथ।
इंतफ़ाक से आ गए साथ, किसी दिन,
और शायरों ने भी अपनी मिसालें कम ना दी। हवाओं ने, तूफ़ानों ने, उस रात की ख़ामोशी ने नज़दैकिया कुछ ऐसी बढा दी, की काटों की धार पर रख के अपना सर सोया करने लगीथी तुम।
क्यूँ इतना प्यार करने लगी थी तुम मुझसे ये मैं कभी ना जान सका, ना ही तुमने कभी जताया या बताया। ना जाने कितने भँवरे मँडराते, पर इस लोहे के गंज की महक ने क़ैद कर दिया था तुम्हें। ज़िंदगी में सुकून इतना हो गया था के भूल गया था ग़म क्या होता है। लेकिन इससे पहले ये भूल जाऊँ की क़ुदरत के लिखे पन्नो से आगे ना कुछ हुआ है ना कभी होगा; वो पल आ ही गया। मैं समझ नहीं पा रहा था तुम्हें क्या हो रहा था — इस लोहे को नहीं ख़बर थी के मुरझाना क्या होता है। तुम मुरझा रही थी और मैं कुछ ना कर सका। अजीब बात तो ये थी, के ग़म क्या होता है वो पता भी नहीं था, तो ग़म जताए कैसे ये सिखने जाये भी कहा ?
चाह कर भी ना छू सका तुम्हें ज़िंदगी भर और चाह कर भी ना मुरझा सके हम।
फ़ुल और काँटें की ये कहानी ना हुई थी कभी पूरी ना होगी कभी पूरी। बस शायरों की किताबों में थे और किताबों में रह चुके हम।

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